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जिन्हे नहीं रास आया जिन्ना का देश




15 अगस्त 1947 को ख्वाजा अबदुल हामिद बंबई में अपनी अंधेरी स्थित फैक्ट्री में जाने की तैयारी कर रहे थे। वहां पर देश के पहले स्वाधीनता दिवस का जश्न मनाया जाना था। सभी मुलाजिमों को गिफ्ट बांटे जाने थे। यह वही बंबई (अब मुंबई) शहर था जिससे मोहम्मद अली जिन्ना का संबंध था। उनका इधर असर भी था पर हामिद साहब के लिए पाकिस्तान का कोई मतलब नहीं था। उन्होंने 1935 में सिप्ला नाम से बंबई में फार्मा कंपनी स्थापित की थी। उसमें 4 जुलाई 1939 को महात्मा गांधी खुद आए थे। गांधी जी ने हामिद साहब से कहा था कि वे जीवन रक्षक दवाओं पर लगातार शोध करें। सिप्ला अब देश की चोटी की फार्मा कंपनी है। अरबों रुपये का सालाना कारोबार है। सिप्ला के मौजूदा चेयरमेन वाईके हामिद कहते हैं कि उनके परिवार ने तो कभी सोचा ही नहीं कि वे पाकिस्तान जाकर बस जाएं। सोचते भी क्यों? हमारे लिए भारत से बढ़कर कुछ रहा ही नहीं। और इधर राजधानी दिल्ली में 1934 बैच के आईसीएस अफसर बदरुद्दीन तैयबजी बीते कई दिनों से देर रात को अपने सुजान सिंह पार्क स्थित फ्लैट में पहुंच रहे थे। उनका एक पैर लाल किले पर होता था तो दूसरा इंडिया गेट से सटे इर्विन स्टेडियम (अब नेशनल स्टेडियम ) में। दरअसल तैयबजी देख रहे थे इन दोनों जगहों पर 15 अगस्त, 1947 को होने वाले देश के पहले स्वाधीनता दिवस समारोहों के आयोजन की तैयारियों को। उनके एक करीबी ने उनसे पूछा कि ‘सर, आप तो पाकिस्तान नहीं जा रहे।’ उनका जवाब होता था कि ‘मेरे पुरखे एक हजार साल से भारत में रह रहे हैं। वे पाकिस्तान क्यों जाएंगे।’ वह पंजाब कैडर के आईसीएस अफसर थे। वे पंडित जवाहरलाल नेहरु के करीबी अफसर थे। नेहरुजी ने उन्हें खुद इन दोनों कार्यक्रमों के आयोजन की जिम्मेदारी सौंपी थी।
देश की आजादी से कुछ समय पहले ही हिंदू-सिख पाकिस्तान से भारत और मुसलमान सरहद के उस पार जाने लगे थे। दंगे भड़क गए थे। मजहब के नाम पर बना मुल्क दुनिया के नक्शे पर आ रहा था। तब भी तमाम मुसलमानों ने भारत में ही रहने का निश्चय किया था। उन्हें नामंजूर था इस्लामिक पाकिस्तान। 15 अगस्त, 1947 से पहले का मंजर देश के कई शहरों में भड़के दंगों के कारण अफसोसजनक बन रहा था। मुसलमानों को अजीब से हालात का सामना करना पड़ रहा था। एक तरफ उनके लिए एक देश बन रहा था। वहां उन्हें जन्नत दिखाने-दिलाने के सपने दिलाए जा रहे थ, लेकिन तमाम प्रलोभनों के बावजूद वे वहां पर नहीं गए। एक अनुमान के मुताबिक, विभाजन के बाद करीब एक करोड़ मुसलमानों ने सरहद के उस पार जाना मंजूर किया, लेकिन इससे कहीं अधिक भारत में ही रहे।
अबदुल हामिद और तैयब जी की तरह दिल्ली में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता एमओ फारूकी अपने साथियों के साथ मुस्लिम बहुल इलाकों में घूम-घूमकर मुसलमानों को पाकिस्तान न जाने की सलाह दे रहे थे। कह रहे थे कि उनका रोशन मुस्तकबिल भारत में ही है। भारत उनका है, वे भारत के हैं। उनके अभियान का असर हो भी रहा था। फारूकी साहब का कुछ साल पहले इंतकाल हुआ। वह सीपीआई के महासचिव थे। जामा मस्जिद के करीब उनका दफ्तर था। इसी से मिलते-जुलते अभियान को अंजाम दे रहे थे आसफ अली साहब। वह कूचा चलान में रहते थे। बड़े वकील थे। उनके साथ 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की शिखर नेता अरुणा आसफ अली जी समेत अनेक हिंदू-मुसलमान रहते थे। अरुणा जी ने एक समय बताया था कि हमने दिल्ली में हजारों मुसलमानों को पाकिस्तान जाने से रोका। मुसलमान खुद भी मन से वहां जाने को तैयार नहीं थे, लेकिन मुस्लिम लीग के कैंपेन के चलते काफी पाकिस्तान जाने के लिए तैयार भी हो गए। कई वहां पर जाने के बाद लौटे भी।
देश की चोटी की आईटी कंपनी विप्रो के चेयरमेन अजीम प्रेमजी के पिता मोहम्मद हाशिम प्रेमजी का बंबई में देश के विभाजन के दौर में चावल, तेल वगैरह का कारोबार था। यह कछी गुजराती मुस्लिम परिवार बंबई में बस गया था। मोहम्मद हासिम को खुद जिन्ना ने पाकिस्तान चलने के लिए कहा था। उन्होंने जिन्ना के प्रस्ताव को सिरे से खारिज किया। वह बंबई में ही रहे। जिन्ना ने उन्हें कहा था कि वह जो पद चाहेंगे वह उन्हें पाकिस्तान में मिलेगा। हमदर्द दवाखाना और जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी के संस्थापक हाकिम अबदुल हामिद साहब कहा करते थे कि अगर दंगे नहीं होते तो सिर्फ हजारों में ही मुसलमान पाकिस्तान जाते। अपने कौटिल्य मार्ग वाले आवास में ईद-होली मिलन मनाने वाले हाकिम साहब कहते थे कि जब उनसे उनके पाकिस्तानी मित्र पूछते थे कि वह पाकिस्तान क्यों नहीं आए तो उनका जवाब होता था कि क्या वहां पर हिंदू-मुसलमान एक साथ ईद मनाते हैं? होली पर एक-दूसरे को रंग लगाते हैं? अगर हां तो वे वहां पर घूमने के लिए जाने के बारे में सोच सकते हैं। वहां पर जाकर बसने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
जब 15 अगस्त 1947 को सारा देश स्वाधीनता की खुशियां मना रहा था तब पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की बेटी दीना वाडिया अपने बंबई के बंगले में तिरंगा फहरा रही थीं। दीना ने पाकिस्तान जाने से इंकार कर दिया था। दीना मेहता ने कुछ साल पहले मुंबई के मालाबार हिल स्थित अपने पिता के बंगले के स्वामित्व पर दावा भी ठोका था। हालांकि वह केस अब भी कोर्ट में चल रहा है। दीना के पुत्र बॉम्बे डाइंग कंपनी के प्रमुख हैं। उनका छोटा बेटा इंडिगो एयरलाइन चलाता है बड़ा बेटा आईपीएलकी टीम किंग्स इलेवन पंजाब का मालिक भी है। दीना ने पिता की मर्जी के खिलाफ पारसी नेविल से शादी की थी। जिन्ना को यह बात कतई अछी नहीं लगी थी। 15 अगस्त, 1947 को इंदौर में सैयद मुश्ताक अली और दिल्ली में नवाब पटौदी इफ्तिखार अली खान अपनी क्रिकेट की प्रैक्टिस कर रहे थे। पटौदी की पत्नी  की छोटी बहन का परिवार कराची चला गया था, लेकिन पटौदी कुनबे ने कभी सरहद पार जाने के संबंध में सोचा तक नहीं।
                                                                                    सौजन्य -: दैनिक जागरण 

जिन्हे नहीं रास आया जिन्ना का देश Reviewed by Unknown on 11:32:00 AM Rating: 5

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